अरावली पहाड़ियों को लेकर उत्तर भारत में बढ़ता आक्रोश: संरक्षण बनाम विकास की जंग
उत्तर भारत की जीवनरेखा मानी जाने वाली अरावली पर्वत श्रृंखला इन दिनों एक बड़े विवाद के केंद्र में है। पर्यावरणीय क्षरण, अवैध खनन और कथित रूप से ढीली होती सरकारी नीतियों के विरोध में हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली-एनसीआर और गुजरात सहित कई राज्यों में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हो रहे हैं। यह विरोध-प्रदर्शन न केवल स्थानीय समुदायों और पर्यावरणविदों को एकजुट कर रहा है, बल्कि संरक्षण और विकास के बीच गहरे संघर्ष को भी उजागर कर रहा है।
अरावली पहाड़ियों को लेकर उत्तर भारत में बढ़ता आक्रोश
घटना का सारांश — कौन, क्या, कब, कहाँ
दिल्ली, 22 नवंबर, 2023: अरावली पहाड़ियों के संरक्षण को लेकर चल रहे प्रदर्शनों में पर्यावरण कार्यकर्ता, स्थानीय ग्रामीण और कई गैर-सरकारी संगठन (NGOs) शामिल हैं। ये समूह लगातार वनों की कटाई, अवैध खनन गतिविधियों और रियल एस्टेट विकास के लिए भूमि के दुरुपयोग के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं। हाल के महीनों में इन प्रदर्शनों में तेजी आई है, खासकर जब से सरकार द्वारा पर्यावरण कानूनों में बदलाव के प्रस्ताव सामने आए हैं।
विरोध प्रदर्शन मुख्य रूप से हरियाणा के गुरुग्राम, फरीदाबाद और मेवात क्षेत्रों, राजस्थान के अलवर और सीकर जिलों, तथा दिल्ली-एनसीआर के कुछ हिस्सों में केंद्रित हैं। ये सभी क्षेत्र अरावली पर्वतमाला के महत्वपूर्ण हिस्सों से घिरे हुए हैं, जहाँ पर्यावरणीय क्षति सीधे तौर पर स्थानीय पारिस्थितिकी और निवासियों के जीवन को प्रभावित करती है। प्रदर्शनकारी सरकार से अरावली को बचाने और अवैध गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए ठोस कदम उठाने की मांग कर रहे हैं।
अरावली पहाड़ियों को लेकर उत्तर भारत के कई राज्यों में प्रदर्शन क्यों हो रहे? — प्रमुख बयान और संदर्भ
अरावली पर्वत श्रृंखला भारत की सबसे पुरानी वलित पर्वतों में से एक है, जो दिल्ली-एनसीआर के लिए 'ग्रीन लंग्स' का काम करती है। यह क्षेत्र के भूजल को रिचार्ज करने, मरुस्थलीकरण को रोकने और जैव विविधता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हजारों साल पुरानी यह पर्वतमाला दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात राज्यों से होकर गुजरती है, और इसका पारिस्थितिक संतुलन करोड़ों लोगों के जीवन के लिए आवश्यक है।
प्रदर्शनों का मूल कारण अरावली में बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप और सरकारी नीतियों में कथित ढिलाई है। अवैध खनन, जो सालों से चल रहा है, ने पहाड़ों के बड़े हिस्से को खोखला कर दिया है। इससे न केवल भूमि का कटाव बढ़ा है, बल्कि भूजल स्तर भी तेजी से गिरा है। रियल एस्टेट और शहरीकरण के बढ़ते दबाव ने भी अरावली के वनों और खुले क्षेत्रों को अतिक्रमण का शिकार बनाया है, जिससे वन क्षेत्र में लगातार कमी आ रही है।
पर्यावरणविदों का तर्क है कि हाल ही में वन संरक्षण अधिनियम, 1980 में प्रस्तावित संशोधनों और पंजाब भूमि परिरक्षण अधिनियम (PLPA) जैसे कानूनों में बदलावों ने स्थिति को और गंभीर बना दिया है। इन बदलावों से 'वन' की परिभाषा कमजोर होने और गैर-वन उद्देश्यों के लिए वन भूमि के हस्तांतरण की प्रक्रिया आसान होने की आशंका है। प्रदर्शनकारियों का कहना है कि ये बदलाव खनन और विकास परियोजनाओं को बढ़ावा देंगे, जिससे अरावली पर दबाव और बढ़ेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने भी समय-समय पर अरावली के संरक्षण पर जोर दिया है और अवैध खनन पर लगाम लगाने के लिए कई निर्देश जारी किए हैं। हालांकि, जमीन पर इन निर्देशों का प्रभावी ढंग से पालन नहीं हो पा रहा है। पर्यावरण कार्यकर्ता सुनीता नारायण ने कई मौकों पर अरावली के महत्व पर प्रकाश डाला है और चेतावनी दी है कि इसके विनाश से दिल्ली-एनसीआर में गंभीर पर्यावरणीय संकट पैदा हो सकता है, जिसमें वायु प्रदूषण और जल संकट शामिल हैं।
सरकार का पक्ष है कि विकास परियोजनाओं के लिए भूमि का अधिग्रहण आवश्यक है, लेकिन साथ ही वे पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं। सरकारें अवैध खनन पर कार्रवाई का दावा करती हैं और कहती हैं कि संशोधित कानून विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन साधने के लिए बनाए गए हैं। हालांकि, प्रदर्शनकारी इन दावों से संतुष्ट नहीं हैं और सख्त नियामक ढाँचे तथा मौजूदा कानूनों के प्रभावी कार्यान्वयन की मांग कर रहे हैं।
स्थानीय समुदायों का आरोप है कि खनन गतिविधियों से उनके जल स्रोत प्रदूषित हो रहे हैं, खेत बंजर हो रहे हैं और उनके स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ रहा है। कई ग्रामीण विस्थापन और आजीविका के नुकसान की आशंका से ग्रस्त हैं। वे अपनी पैतृक भूमि और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिसे वे सदियों से संजोए हुए हैं।
पार्टियों की प्रतिक्रिया
अरावली संरक्षण के मुद्दे पर राजनीतिक दल विभाजित दिखते हैं। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), जिसने हरियाणा और केंद्र दोनों में सरकारें बनाई हैं, अक्सर विकास परियोजनाओं और आर्थिक वृद्धि पर जोर देती रही है। भाजपा के नेताओं ने कहा है कि कानूनों में बदलाव का उद्देश्य विकास को गति देना है, साथ ही यह भी दावा किया है कि पर्यावरण संरक्षण के लिए पर्याप्त उपाय किए जा रहे हैं। उनका मानना है कि कठोर नियमों से निवेश बाधित होता है और रोजगार सृजन में बाधा आती है।
वहीं, विपक्षी दल जैसे कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (AAP) ने सरकार की नीतियों की कड़ी आलोचना की है। कांग्रेस के नेताओं ने आरोप लगाया है कि सरकार खनन माफियाओं के साथ मिलीभगत कर रही है और अरावली के विनाश को बढ़ावा दे रही है। उन्होंने सरकार पर पर्यावरण हितों को अनदेखा करने और बड़े औद्योगिक घरानों को लाभ पहुँचाने का आरोप लगाया है। AAP ने दिल्ली-एनसीआर के बढ़ते प्रदूषण को अरावली के विनाश से जोड़ते हुए सरकार से तत्काल कदम उठाने की मांग की है।
स्थानीय स्तर पर, विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता अपनी स्थिति को लेकर अक्सर अस्पष्ट रहते हैं, क्योंकि उन्हें विकास और संरक्षण दोनों के समर्थकों के वोटों की आवश्यकता होती है। हालांकि, कुछ स्थानीय नेता पर्यावरणविदों और ग्रामीणों के समर्थन में खुले तौर पर सामने आए हैं, विशेषकर उन क्षेत्रों में जहां खनन का सीधा नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। इस मुद्दे ने आगामी चुनावों में एक महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा बनने की क्षमता भी दिखाई है, खासकर हरियाणा और राजस्थान में।
राजनीतिक विश्लेषण / प्रभाव और मायने
अरावली का मुद्दा केवल पर्यावरणीय नहीं, बल्कि गहन राजनीतिक और सामाजिक मायने भी रखता है। पारिस्थितिक रूप से, अरावली का विनाश दिल्ली-एनसीआर को रेतीली आँधियों, भूजल संकट और गंभीर वायु प्रदूषण के प्रति अधिक संवेदनशील बना देगा। यह दिल्ली-एनसीआर के पहले से ही नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र पर और दबाव डालेगा, जिससे क्षेत्र में रहने वाले करोड़ों लोगों का जीवन प्रभावित होगा।
सामाजिक रूप से, खनन और विकास से होने वाला विस्थापन स्थानीय समुदायों के बीच आक्रोश पैदा कर रहा है। उनकी आजीविका और सांस्कृतिक पहचान पर खतरा मंडरा रहा है, जिससे सामाजिक अशांति बढ़ सकती है। यह दिखाता है कि कैसे पर्यावरणीय अन्याय अक्सर सबसे कमजोर समुदायों को असमान रूप से प्रभावित करता है, जिनके पास अपनी आवाज उठाने के लिए सीमित संसाधन होते हैं।
राजनीतिक रूप से, यह मुद्दा संबंधित राज्यों और केंद्र सरकारों के लिए एक चुनौती बन गया है। सरकार को विकास की आवश्यकता और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन स्थापित करने के लिए एक टिकाऊ समाधान खोजना होगा। पर्यावरणविदों और स्थानीय लोगों के बढ़ते दबाव को अनदेखा करना चुनावी रूप से महंगा साबित हो सकता है। यह मुद्दा वोट बैंक की राजनीति को भी प्रभावित कर सकता है, जहां पर्यावरण संरक्षण की मांग करने वाले समूह एक महत्वपूर्ण चुनावी ताकत के रूप में उभर सकते हैं।
अरावली के संरक्षण का सवाल भारत की 'स्मार्ट सिटी' और 'मेक इन इंडिया' जैसी महत्वाकांक्षी विकास योजनाओं की स्थिरता पर भी सवाल खड़ा करता है। यदि प्रमुख पारिस्थितिक प्रणालियों की कीमत पर विकास किया जाता है, तो इसके दीर्घकालिक परिणाम अर्थव्यवस्था और समाज दोनों के लिए विनाशकारी हो सकते हैं। एक मजबूत और समावेशी विकास मॉडल के लिए पर्यावरण-संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाना अनिवार्य है।
क्या देखें
- न्यायिक हस्तक्षेप: सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) इस मामले में आगे क्या निर्देश देते हैं, और क्या इन निर्देशों का प्रभावी ढंग से पालन किया जाता है।
- सरकारी नीतियां और उनका क्रियान्वयन: वन संरक्षण अधिनियम और पंजाब भूमि परिरक्षण अधिनियम में प्रस्तावित संशोधन क्या अंतिम रूप लेते हैं, और उनका अरावली पर क्या प्रभाव पड़ता है।
- पर्यावरणविदों और स्थानीय समुदायों का विरोध: इन समूहों का आंदोलन कितना मजबूत रहता है, और क्या वे सरकार पर अपनी मांगों को मानने के लिए पर्याप्त दबाव डाल पाते हैं।
- चुनावी प्रभाव: हरियाणा और राजस्थान जैसे राज्यों में आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनावों में यह मुद्दा कितना महत्वपूर्ण साबित होता है, और क्या यह राजनीतिक दलों की रणनीति को प्रभावित करता है।
- अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर मुद्दा: क्या यह पर्यावरणीय मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण संगठनों और सम्मेलनों में उठाया जाता है, जिससे सरकार पर अतिरिक्त दबाव पड़ सके।
निष्कर्ष — आगे की संभावनाएँ
अरावली पहाड़ियों पर चल रहा विरोध-प्रदर्शन भारत में पर्यावरण संरक्षण और विकास के बीच एक व्यापक बहस का प्रतिबिंब है। यह एक गंभीर चेतावनी है कि प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन दीर्घकालिक रूप से अस्थिर और विनाशकारी होगा। अरावली सिर्फ पहाड़ों की एक श्रृंखला नहीं है, बल्कि यह करोड़ों लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण पारिस्थितिक कवच है, जिसका संरक्षण अपरिहार्य है।
आगे की संभावनाओं में सरकारों को अधिक पारदर्शी और जवाबदेह नीतियां अपनानी होंगी। विकास परियोजनाओं को शुरू करते समय पर्यावरणीय प्रभाव आकलन को गंभीरता से लेना होगा और स्थानीय समुदायों की आवाज को सुनना होगा। सुप्रीम कोर्ट और NGT जैसे न्यायिक निकायों की भूमिका भी इस मामले में महत्वपूर्ण रहेगी, जो पर्यावरण संरक्षण के लिए संवैधानिक जनादेश को बनाए रखने में मदद कर सकते हैं। अंततः, अरावली का भविष्य सरकारों, नागरिकों और न्यायपालिका के सहयोगात्मक प्रयासों पर निर्भर करेगा, ताकि विकास और प्रकृति के बीच एक स्थायी संतुलन बनाया जा सके।
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